1996 जून 17 ला लिहीलेली काॅलेज लाईफ मधली ही कविता.
बर्याच वर्षांनी फडताळात ते जुन्या कवितांचं गाठोडं गवसलंय. तर त्या गंगोत्री ला डिजिटाईझ करण्याचा हा खटाटोप.
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एक तस्वीरसी रहती है आंखोमे
कुछ अनदेखी अनजानीसी,
के सोचता हूं 'इसे देखा है कहीं'
कुछ जानी सी पहचानी सी !!
तडपाती है मुझे वह हंसहंसके
सताती और लुभाती हैँ,
मै जितना उसे भुलाता हूं
उतनीही याद वह आती हैं !!
जब पलकें मूंदे सोचता हूं
वह सामने खडी सी लगती हैं,
दिदारको पलके खोलूं तो
वह अंधेरेसे बिलगती हैं !!
कहीं खो ना दूं उसे ख्वाबोंमे
मै मन ही मन मे डरता हूं,
बस इसीलिए ही रहरहकर
उसे अक्सर याद मै करता हूं !!
वह कहां मिलेगी पता नहीं
कुछ पगली और दिवानी सी,
के सोचता हूं 'इसे देखा है कहीं'
कुछ जानी सी पहचानी सी ....!!
- कोण?
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